sundarkand_path's profile picture. "हनुमान भक्तों के लिए समर्पित 🙏 | प्रतिदिन सुन्दरकाण्ड पाठ 📖 | भक्ति और प्रेरणा का स्रोत"

sundarkand_path

@sundarkand_path

"हनुमान भक्तों के लिए समर्पित 🙏 | प्रतिदिन सुन्दरकाण्ड पाठ 📖 | भक्ति और प्रेरणा का स्रोत"

160/160 सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान,सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।


159/160 सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥ *॥ छन्द ॥* निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ,यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ। सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना,तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥ **॥ दोहा 60 ॥**


158/160 एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥ एहि सर मम उत्तर तट बासी।हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥ सुनि कृपाल सागर मन पीरा।तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥ देखि राम बल पौरुष भारी।हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥


157/160 सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ,जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ। *॥ चौपाई ॥* नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥ तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥ मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।करिहउँ बल अनुमान सहाई॥


156/160 प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥ ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी॥ प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥ प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥ **॥ दोहा 59 ॥**


155/160 सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥ गगन समीर अनल जल धरनी।इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥ तव प्रेरित मायाँ उपजाए।सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥ प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥


154/160 मकर उरग झष गन अकुलाने।जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥ कनक थार भरि मनि गन नाना।बिप्र रूप आयउ तजि माना॥ **॥ दोहा 58 ॥** काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच,बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच। *॥ चौपाई ॥*


153/160 सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।सहज कृपन सन सुंदर नीति॥ ममता रत सन ग्यान कहानी।अति लोभी सन बिरति बखानी॥ क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।ऊसर बीज बएँ फल जथा॥ अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।यह मत लछिमन के मन भावा॥ संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥


152/160 बंदि राम पद बारहिं बारा।मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥ **॥ दोहा 57 ॥** बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति,बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति। *॥ चौपाई ॥* लछिमन बान सरासन आनू।सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥


151/160 जनकसुता रघुनाथहि दीजे।एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥ जब तेहिं कहा देन बैदेही।चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥ नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥ करि प्रनामु निज कथा सुनाई।राम कृपाँ आपनि गति पाई॥ रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥


150/160 भूमि परा कर गहत अकासा।लघु तापस कर बाग बिलासा॥ कह सुक नाथ सत्य सब बानी।समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥ सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥ अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥ मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।उर अपराध न एकउ धरिही॥


149/160 बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस,राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥(क)। की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग,होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥(ख)॥ *॥ चौपाई ॥* सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।कहत दसानन सबहि सुनाई॥


148/160 सचिव सभीत बिभीषन जाकें।बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥ सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥ रामानुज दीन्हीं यह पाती।नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥ बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥ **॥ दोहा 56 ॥**


147/160 सक सर एक सोषि सत सागर।तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥ तासु बचन सुनि सागर पाहीं।मागत पंथ कृपा मन माहीं॥ सुनत बचन बिहसा दससीसा।जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥ सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।सागर सन ठानी मचलाई॥ मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥


146/160 श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड (दोहा 55 - दोहा 60) ======================================= **॥ दोहा 55 ॥** सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम,रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम। *॥ चौपाई ॥* राम तेज बल बुधि बिपुलाई।सेष सहस सत सकहिं न गाई॥


145/160 परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥ सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥ मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥ गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥ =======================================


144/160 ए कपि सब सुग्रीव समाना।इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥ राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥ अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।पदुम अठारह जूथप बंदर॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥


143/160 जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥ अमित नाम भट कठिन कराला।अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥ **॥ दोहा 54 ॥** द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि,दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि। *॥ चौपाई ॥*


142/160 मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥ रावन दूत हमहि सुनि काना।कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥ श्रवन नासिका काटैं लागे।राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥ पूँछिहु नाथ राम कटकाई।बदन कोटि सत बरनि न जाई॥ नाना बरन भालु कपि धारी।बिकटानन बिसाल भयकारी॥


141/160 कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥ **॥ दोहा 53 ॥** की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर,कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर। *॥ चौपाई ॥* नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥


United States Trends

Loading...

Something went wrong.


Something went wrong.